कहने को तिकड़ी थी।
एक थी बुलबुल, एक थी टीना, और एक मैं दोनों से छोटी, बोले तो सबसे छोटी टिन्नी,,, ।
मुझे तब भी झुंडों की जरुरत नहीं थी, वो दोनों मुझसे बड़ी थी, उनके साथ खेलना अगर ठीक लगता तो ही खेलती, नहीं तो अकेले ज्यादा खुश थी।
हाँ, तो कहानी की शुरुआत ऐसे है,
रविवार की भोर, मेरे उस पेड़ों के झुरमुट जंगल में इतना कोलाहल होता पक्षियों का जैसे मानो वो मुझे ही उठाना चाह रहे हों, कहना चाह रहे हों "आज तो रविवार है, आज हम सब साथ रहेंगे।"
6 बजे रविवार के दिन कोई बच्चा नहाता है क्या?
पर मुझे नहलाने में इससे देरी होती तो मैं बड़-बड़ा कर घर सिर पर उठा लेती ( बाकि बच्चों की तरह हर बात पर नहीं रोती थी, पहले डट कर सामना करती, फिर जब वश में नही रहता तो ऐसा रोती जैसे जन्मों से रोई नहीं हो),
फिर सुबह पहले नाश्ता करवा देती माँ , जानती थी अब जो भूख भी लगे तो घर वापस ना आयेगी, ( मैं इस डर से नहीं जाती थी कि वापस गई तो फिर से खेलने नहीं भेजेंगे)।
घर के दरवाजे से निकलने से पहले इतना प्यार से माँ को पटाना कि कहीं बस मना न करदे,
चालाकी मैंने तभी सीख ली थी।
घर के दरवाजे से बाहर जाते ही पहला मकसद होता, "पहले इन लोगों की आँखों से ओझल होना है, कहीं वापस बुला लिया तो"
और फिर शुरू होता हमारा घुमंतू अभियान।
बुलबुल, टीना अगर साथ होती तो हम, बंद पड़े कमरों की नीची खिडकियों को धक्का मार मार परखते, कहीं कोई खिड़की खुली रह गई हो (हम कामयाब हमेशा होते थे)
फिर एक एक कर खिड़की से अन्दर जाते,( बड़े और पुराने जमाने के कमरे थे, जिनमे चुना-पत्थर काम में लिया जाता था, जिनका तापमान हमेशा मध्यम रहता, गर्मी-सर्दी दोनों का ही कम असर हो पाता था उन पर,)
खाली पड़े कमरों में हम जोर जोर से चिल्लाते, आवाज गूंजती हम खुश हो जाते।
फिर जागता लड्कीपना, (उम्र जो भी हो, असर रहता है)
"चलो खाने के लिए डिशेस बनाते हैं।"
हम निकलते बाहर। रंग-बिरंगे फूल, पत्तियां, सूखे पत्ते, पानी, और हाँ रेत भी :) ।
सब झोली में भर लेते। पेड़ो के पत्तों की पत्तलों पर, उस जंगली भोजन को सजाते, तरह तरह से, और जिसकी सुंदर डिशेज, वो विजेता। (मुझे याद नही कभी मैं विजेता रही थी)
क्युकी मुझे उनके साथ की वजह से ये सब करना पड़ता था, मेरा मन तो एक छोर बाग़, एक छोर सरस्वती मंदिर, एक छोर स्टेडियम, एक छोर राम मंदिर और बीच में छोटा हनुमान, इन्ही को नापने में रहता था।
एक बहुत छोटा सा हनुमान मंदिर था, उसमें यूँ तो प्रभु की खड़े की मूर्ती थी, पर एकमात्र वही कद में मुझसे छोटे थे वहां, तो मेरे लिए मेरे गुड्डे जैसे थे। पंडितजी को पता न चले, इसलिए बिना शोर किये जाती, फिर उसके सामने बैठती, उससे अकेले कई देर बातें करती, फिर आगे चढ़ा प्रसाद हम दोनों ( मैं और हनुमंता) खाते, फिर दरवाजे के पीछे रखी मोर-पंख की झाड़ू से मैं झाड़ू लगाती, उनके सामने बैठ, मूर्ती का पूरा विश्लेषण करती, इतना प्रेम था उस मूर्ती से मुझे कि जैसे वो साक्षात् ही सामने है, और मैं छु छु कर देख रही हूँ।
इतना गुप्प अँधेरा हो जाता, पर मुझे घर जाने का ख्याल नहीं आता। पक्षी इतना शोर मचाने लगते, माँ चिंतित इसलिए हो जाती कि इतने जंगल में कहाँ खोजुंगी, कोई जानवर खा जाए, शाम का समय है।
आखिर हर बार भाई अपने दोस्तों के साथ मुझे खोजने निकलता, गुस्से में, बहुत जोर जोर से आवाज़ लगाता.. टिन्नी...टिन्नी..
बोल जा..नहीं तो मम्मी की डांट पड़ेगी।.....
इतना बड़ा जंगल, एक बच्चा आराम से छुप सकता था, अँधेरे में जब तक मैं जवाब न दूँ,भाई मुझे ना खोज सके।
मैं भी जिद्दी, घर जाउंगी, पर भाई के साथ नहीं, मैं जवाब नही देती। फिर पीछे से घर पहुंचती, मम्मी दरवाजे में खड़ी मिलती,
हाँ,
हर रविवार की शाम मुझे माँ से सज़ा मिलती थी। :( :'(
कोई नही समझता था, कि मैं उस छोटे हनुमंता के साथ ही खुश हूँ।
# बचपन गुंजन का
© गुंजन झाझारिया
रविवार, फ़रवरी 16
बचपन : कड़ी भाग 2
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